1857 का विद्रोह के मुख्य कारण
चलिए आज हम लोग 1857 का विद्रोह के मुख्य कारण के बारे मे पढ़ते है और जानते है की वो कौन कौन सी मुख्य कारण थी जिसके कारण 1857 का विद्रोह शुरू हुआ।
1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था । यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था, परंतु कुछ समय पश्चात् इसने एक बड़ा रूप ले लिया । विद्रोह का अंत भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया । अन्य प्रमुख एवं पहले के विद्रोहों की तरह 1857 के विद्रोह के विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक तथा सामाजिक कारण थे ।
1857 का विद्रोह के आर्थिक कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया तथा श्रमिकों से बलपूर्वक अधिक से अधिक श्रम कराकर उन्हें कम पारिश्रमिक देना प्रारम्भ किया। इसके अतिरिक्त अकाल और बाढ़ की स्थिति में भारतीयों की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की जाती थी और उन्हें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था ।
सन 1813 में कंपनी ने एकतरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली। इसके अंतर्गत ब्रिटिश व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी । परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकीं और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई ।
भारतीय व्यापार एवं व्यापारी वर्ग को ब्रिटिश शासन द्वारा जानबूझकर बर्बाद कर दिया गया, जिन्होंने भारत में बनी चीजों पर उच्च करारोपण प्रशुल्क लगाए। उसी समय, ब्रिटेन में बनी वस्तुओं पर निम्न कर लगाकर उन्हें भारत में आयात करके प्रोत्साहित किया गया । उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक, भारत से कपास एवं सिल्क कपड़ों का निर्यात वस्तुतः समाप्त हो चुका था । मुक्त व्यापार एवं ब्रिटेन से आने वाली मशीन निर्मित वस्तुओं के विरुद्ध रक्षात्मक करों को लगाने से इंकार ने भारतीय विनिर्माण क्षेत्र को समाप्त कर दिया ।
रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गए। रेल सेवा ने ब्रिटिश व्यापारियों को दूर-दराज के गांवों तक पहुंच दे दी । सर्वाधिक क्षति कपड़ा उद्योग (कपास और रेशम) को हुई | 18वीं और 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रुकावटों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया । पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ-साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने के कारण यह स्थिति अधिक विषम हो गई ।
कंपनी ने खेती के सुधार पर बेहद कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी
के खर्चों को पूरा करने में प्रयोग होता था । ब्रिटिश कानून व्यवस्था के अंतर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था ।
निम्न वर्गीय कृषकों तथा मजदूरों की स्थिति तो दयनीय थी ही, राजाओं और नवाबों तक की आर्थिक स्थिति बदहाल थी। भारत से प्राप्त खनिज संसाधनों और सस्ते श्रम के बल पर अंग्रेजों ने अपने उद्योग धंधों को विकास के चरम पर पहुंचा दिया, जबकि दूसरी ओर भारत में किसी नए उद्योग की स्थापना की बात तो दूर, छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों को भी समाप्त कर दिया गया। इससे भारत के प्रत्येक वर्ग में अंग्रेजों के प्रति अविश्वास की भावना उत्पन्न हुई और वे व्यापक विद्रोह के सूत्रधार बन गए।
1857 का विद्रोह के राजनैतिक कारण
ईस्ट इंडिया कंपनी की ‘प्रभावी नियंत्रण’, ‘सहायक संधि’ और ‘व्यपगत का सिद्धांत’ जैसी नीतियों ने जन- असंतोष एवं विप्लव को बढ़ावा दिया।
वेलेजली ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी राजनैतिक परिधि में लाने के लिए सहायक संधि प्रणाली का प्रयोग किया। इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार में विशेष भूमिका निभाई और उन्हें भारत का एक विस्तृत क्षेत्र हाथ लगा । इस कारण भारतीय राज्य अपनी स्वतंत्रता खो बैठे ।
गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में भारत के कुछ प्रमुख देशी राज्यों, यथा–झांसी, उदयपुर, संभलपुर, नागपुर आदि के राजाओं के कोई पुत्र नहीं थे । प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था के प्रावधानों के तहत योग्य उत्तराधिकारी के चयन के लिए ये राजा अपने मनोनुकूल किसी बच्चे को गोद ले सकते थे । परन्तु डलहौजी ने गोद लेने की इस प्रथा को अमान्य घोषित कर इन देशी राज्यों (रियासतों) को कम्पनी के शासनाधिकार में ले लिया। कम्पनी द्वारा शुरू की गई इस नयी नीति से सभी राजा असंतुष्ट थे और वे किसी ऐसे अवसर की तलाश में थे, जब पुनः अंग्रेजों को दबाकर अपनी रियासत पर अधिकार जमा सकें ।
1857 का विद्रोह के प्रशासनिक कारण
कंपनी प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, विशिष्ट रूप से पुलिस, निम्न अधिकारियों एवं अधीनस्थ अदालतों में, असंतोष का एक मुख्य कारण था। दरअसल, कई इतिहासकारों का मत है कि आज हम जो भ्रष्टाचार भारत में देखते हैं, वह कंपनी शासन की देन । साथ ही भारतीयों की नजर में ब्रिटिश शासन का चरित्र विदेशी शासन का था ।
1857 का विद्रोह के सामाजिक-धार्मिक कारण
कम्पनी के शासन- विस्तार के साथ-साथ अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ अमानुषिक व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया था। काले और गोरे का भेद स्पष्ट रूप से उभरने लगा
था। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को गुलाम समझा जाता था। समाज में अंग्रेजों के प्रति उपेक्षा की भावना बहुत अधिक बढ़ गई थी, क्योंकि उनके रहन-सहन, अन्य व्यवहार एवं उद्योग – आविष्कार से भारतीय व्यक्तियों की सामाजिक मान्यताओं में अंतर पड़ता था। अपने सामाजिक जीवन में वे अंग्रेजों का प्रभाव स्वीकार नहीं करना चाहते थे । अंग्रेजों की खुद को श्रेष्ठ और भारतीयों को हीन समझने की भावना ने भारतीयों को क्रांति करने की प्रेरणा प्रदान की ।
भारत में अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में भारतीयों पर धार्मिक दृष्टि से भी कुठाराघात किया था। इस काल में योग्यता की जगह धर्म को पद का आधार बनाया गया । जो कोई भी भारतीय ईसाई धर्म को अपना लेता था, उसकी पदोन्नति कर दी जाती थी, जबकि भारतीय धर्म का अनुपालन करने वाले को सभी प्रकार से अपमानित किया जाता था । इससे भारतीय जनसाधारण के बीच अंग्रेजों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता उत्पन्न हो गई थी । फिर, ईसाई धर्म का इतना अधिक प्रचार किया गया कि भारतीयों को यह संदेह होने लगा कि अंग्रेज उनके धर्म का सर्वनाश करना चाहते हैं । परिणामस्वरूप भारतवासी अंग्रेजों को धर्मद्रोही समझकर उन्हें देश से बाहर निकालने का मार्ग ढूंढने लगे और 1857 ई. में जब मौका मिला, तब हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध प्रहार किया ।
बाहरी घटनाओं का प्रभाव
1857 का विद्रोह कुछ बाहरी घटनाओं – प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (1838-42), पंजाब युद्ध (1845-49), एवं क्रीमिया युद्ध (1854-56), – जिसमें अंग्रेजों को भारी हानि हुई थी, से भी प्रेरित हुआ। इससे इस धारणा से उबरने का अवसर मिला कि अंग्रेज अपराजेय हैं। भारत के क्रांतिकारियों को इस युद्ध से नवीन आशा एवं प्रेरणा मिली कि हम भी अंग्रेजों को देश से निकाल सकते हैं और इसके लिए उन्होंने विद्रोह शुरू कर दिया ।
सिपाहियों के बीच असंतोष
सिपाही मूलतः कंपनी की बंगाल सेना में काम करने वाले भारतीय मूल के सैनिक थे बम्बई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेना प्रमुख होता था । इस सेना में ब्रिटिश सेना से अधिक सिपाही थे। वर्ष 1857 में इस सेना में 2,57,000 सिपाही थे । बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सेना में अलग-अलग क्षेत्रों के लोग होने के कारण ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थीं और इनमें किसी एक क्षेत्र के लोगों का प्रभुत्व नहीं था। लेकिन बंगाल प्रेसीडेन्सी की सेना में भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यतः अवध और गंगा के मैदानी क्षेत्रों के भूमिहार ब्राह्मण और राजपूत थे। कंपनी के प्रारंभिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीति-रिवाजों को महत्व दिया जाता था, परंतु सन् 1840 के पश्चात् कलकत्ता में आधुनिकता पसंद सरकार आने के पश्चात्
सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका बढ़ गई। सेना में सिपाहियों को जाति और धर्म से संबंधित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। सन् 1856 में एक आदेश के अंतर्गत सभी नए भर्ती सिपाहियों को विदेश में कुछ समय के लिए काम करना अनिवार्य कर दिया गया । सिपाही धीरे-धीरे सैन्य-जीवन के विभिन्न पहलुओं से असंतुष्ट हो चुके थे। सेना का वेतन कम था। भारतीय सैनिकों का वेतन मात्र सात रुपए प्रतिमाह था। अवध और पंजाब जीतने के पश्चात् सिपाहियों का भत्ता भी समाप्त कर दिया गया था। एनफील्ड बंदूक के बारे में फैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशंका को अधिक बढ़ा दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।
अंततः ब्रिटिश भारतीय सेना में विद्रोहों – बंगाल (1764), वेल्लौर (1806), बैरकपुर (1825) और अफगान युद्ध (1838-42) के दौरान – का एक लंबा इतिहास है, जिसमें
से ये कुछ हैं।
अफवाहें: इस समय एक अफवाह फैली थी कि, कंपनी का शासन 1757 में प्लासी के युद्ध से प्रारंभ हुआ था और सन् 1857 में 100 वर्षों के पश्चात् समाप्त हो जाएगा। चपातियां और कमल के फूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे । ये आने वाले विद्रोह के लक्षण थे ।