क्रिप्स मिशन क्यों असफल हुआ ? विस्तार में बताएं

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क्रिप्स मिशन क्यों असफल हुआ ?

क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव भारतीय राष्ट्रवादियों को संतुष्ट करने में असफल रहे तथा साधारण तौर पर भारतीयों के किसी भी वर्ग की सहमति प्राप्त नहीं कर सके। विभिन्न दलों तथा समूहों ने अलग-अलग आधार पर इन प्रस्तावों का विरोध किया।

कांग्रेस ने निम्न आधार पर प्रस्तावों का विरोध कियाः

  • (i) भारत को पूर्ण स्वतंत्रता के स्थान पर डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा दिये जाने की व्यवस्था ।
  • (ii) देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के लिये निर्वाचन के स्थान पर मनोनयन की व्यवस्था ।
  • (iii) प्रांतों को भारतीय संघ से पृथक होने तथा पृथक संविधान बनाने की व्यवस्था, जो कि राष्ट्रीय एकता के सिद्धांत के विरुद्ध था।
  • (iv) सत्ता के त्वरित हस्तांतरण की योजना का अभाव तथा प्रतिरक्षा के मुद्दे पर वास्तविक भागीदारी की व्यवस्था का न होना; गवर्नर जनरल की सर्वोच्चता पूर्ववत थी; तथा गवर्नर-जनरल को केवल संवैधानिक प्रमुख बनाने की मांग को स्वीकार न किया जाना।
  • (i) एकल भारतीय संघ की व्यवस्था का होना उसे स्वीकार्य नहीं था।
  • (ii) संविधान निर्मात्री परिषद के गठन का जो आधार सुनिश्चित किया था वह उसे स्वीकार्य नहीं था तथा प्रांतों के संघ से पृथक होने तथा अपना पृथक संविधान बनाने की जो विधि निर्धारित की गयी थी, उससे भी लीग असहमत थी।
  • (iii) प्रस्तावों में मुसलमानों के आत्म-निर्धारण के सिद्धांत तथा पृथक पाकिस्तान की मांग को स्वीकार नहीं किया गया था।

अन्य दलों ने भी प्रांतों को संघ से पृथक होने का अधिकार दिये जाने का विरोध किया। उदारवादियों का मानना था कि प्रांतों को संघ से पृथक होने का विकल्प देना भारत की एकता एवं सुरक्षा के विरुद्ध है। हिन्दू महासभा ने भी इस प्रावधान की आलोचना की। दलितों ने अनुमान लगाया कि विभाजन के पश्चात् उन्हें बहुसंख्यक हिन्दुओं की कृपा पर जीना पड़ेगा। सिक्खों का विरोध इस बात पर था कि विभाजन होने पर पंजाब उनसे छिन जायेगा।

अंग्रेजों ने कहा कि यह योजना 1940 के अगस्त प्रस्तावों का ही एक रुप है, जिसे अधिक स्पष्ट किया गया है। इसका उद्देश्य उस पुराने प्रस्ताव का अतिक्रमण करना नहीं है। अंग्रेजों की इस घोषणा से सरकार के प्रति शंका और बढ़ गयी।

क्रिप्स द्वारा प्रस्तावों से आगे आकर भारतीयों का विश्वास जीतने की असफलता तथा उनका यह कहना कि “इसे स्वीकार करो या छोड़ दो” गतिरोध के सबसे प्रमुख कारण थे। प्रारम्भ में क्रिप्स ने “मंत्रिमंडल के गठन” तथा “राष्ट्रीय सरकार” की स्थापना की बात कही, किन्तु बाद में वे अपनी बातों से मुकर गये तथा कहने लगे कि उनका आशय केवल कार्यकारिणी परिषद् के विस्तार से था।

प्रांतों के विलय या पृथक होने की व्यवस्था का प्रावधान अस्पष्ट था। संघ से पृथक होने के प्रस्ताव का विधानमंडल में 60 प्रतिशत सदस्यों द्वारा अनुमोदन किया जाना आवश्यक था। यदि इस प्रस्ताव का 60 प्रतिशत से कम सदस्य समर्थन करेंगे तब इसे प्रांत के वयस्क पुरुषों के सामान्य बहुमत से पारित होना आवश्यक होगा। यह व्यवस्था विशेष रूप से पंजाब एवं बंगाल के हिन्दुओं के लिये हानिकारक थी, भले ही वे भारतीय संघ में शामिल होना चाहते थे ।

मिशन के प्रस्तावों में यह भी अस्पष्ट था कि सत्ता के हस्तांतरण संबंधी प्रावधानों को कौन लागू करेगा तथा कौन इनकी व्याख्या करेगा।

ब्रिटिश सरकार की वास्तविक मंशा यह थी कि क्रिप्स मिशन सफल न हो। क्योंकि वह भारतीयों को सत्ता के हस्तांतरण तथा देश की प्रतिरक्षा संबंधी जिम्मेदारी में भागीदारी, दोनों के विरुद्ध थी ।

उधर, चर्चिल (ब्रिटिश प्रधानमंत्री), एमरी (विदेश मंत्री) , लिनलिथगो (वायसराय) तथा वेवेल (कमांडर-इन-चीफ) भी नहीं चाहते थे कि क्रिप्स मिशन सफल हो ।

वायसराय के वीटो (निशेषाधिकार) के मुद्दे पर स्टैफर्ड क्रिप्स तथा कांग्रेस के नेताओं के मध्य बातचीत टूट गयी।

गांधीजी ने क्रिप्स प्रस्तावों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि “यह आगे की तारीख का चेक था, जिसका बैंक नष्ट होने वाला था” (It was post-dated cheque on a crashing Bank) । जवाहरलाल नेहरू ने क्रिप्स प्रस्तावों के संबंध में कहा कि “क्रिप्स योजना को स्वीकार करना भारत को अनिश्चित खण्डों में विभाजित करने के लिये मार्ग प्रशस्त करना था।”

इस प्रकार स्टैफर्ड क्रिप्स भारतीयों को निराशा एवं असमंजस के वातावरण में छोड़कर वापस इंग्लैंड लौट गये। भारतीय जो अभी भी फासीवादी आक्रमण के पीड़ितों के प्रति पूरी सहानुभूति की तस्वीर अपने मनो-मस्तिष्क में संजोये हुए थे, अंग्रेजी सरकार के रवैये से खुद को छला हुआ महसूस करने लगे थे । अब भारतीयों ने यह मानना प्रारम्भ कर दिया कि वर्तमान परिस्थितियां असहनीय बन चुकी हैं तथा साम्राज्यवाद पर अंतिम प्रहार करना आवश्यक हो गया है ।