इस लेख मे इतिहास विषय के अनुसार – भारत सरकार अधिनियम 1935 के पारित होने की परिस्थितियां के बारे मे जानकारी दी गयी है ।
1935 अधिनियम के पारित होने की परिस्थितियां
वर्ष 1919 के मांटफोर्ड सुधारों को कांग्रेस ने “ असंतोषजनक, अपर्याप्त और निराशाजनक’ कहा। इसने दिसम्बर 1921 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया, जिसमें केंद्रीय एवं प्रांतीय विधानमंडलों का बहिष्कार सम्मिलित था। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के पारित होने के लिये प्रमुख उत्तरदायी कारक निम्न प्रकार थे-
स्वराज्य दल की भूमिकाः 1919 के सुधारों के प्रति असंतोष धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। उदारवादी, जो लंबे समय तक सरकार के साथ सहयोग की नीति के पक्षधर थे, इन सुधारों को अपर्याप्त और असंतोषजनक मानने लगे थे । तत्पश्चात स्वराज्य दल ने इन सुधारों के विरोध में सक्रिय भूमिका निभायी। इस दल के गठन का तो उद्देश्य ही इनके विरोध से जुड़ा हुआ था । उद्देश्य यह था कि विधानमंडलों में प्रवेश कर इन सुधारों तथा उनसे सम्बद्ध किसी भी संवैधानिक प्रक्रिया को अवरुद्ध किया जाये। 1923 के चुनावों में इस दल को मिली प्रचण्ड सफलता के लाभ को स्वराजियों ने विधेयक एवं सरकारी कार्यों के विरोध की ओर मोड़ दिया।
साइमन कमीशन की भूमिकाः 1927 में सरकार ने साइमन कमीशन की नियुक्ति कर अप्रत्यक्ष रूप से यह स्वीकार कर लिया था कि मोंट- फोर्ड सुधार असफल रहे हैं। दूसरी ओर, 1923 के चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता से भी सरकार भयातुर थी। एक और तर्क यह था कि लंदन में लॉर्ड बिरकनहैड भी कमीशन के गठन का श्रेय आगामी उदारवादी सरकार को नहीं देना चाहते थे ।
कमीशन की रिपोर्ट में जो संस्तुतियां थीं, वे अप्रत्यक्ष रूप से मोंट- फोर्ड सुधारों की कमियों तथा कुछ अन्य सुधारों की आवश्यकताओं को रेखांकित कर रही थीं।
नेहरू रिपोर्टः नेहरू रिपोर्ट ने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था की भरपूर आलोचना की तथा उसके स्थान पर अल्पसंख्यकों को जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की मांग की । इसने सम्पूर्ण भारत के लिये एक एकीकृत संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत की, जिससे केंद्र तथा सभी प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता मिल सके ।
लार्ड इरविन की डोमिनियन स्टेट्स से सम्बद्ध घोषणाः अक्टूबर 1929 में वायसराय ने रैम्जे मैक्डोनाल्ड के नेतृत्व में सत्ताधारी श्रमिक सरकार से विचार-विमर्श के उपरांत यह घोषणा की कि भारत में सुधारों का चरमोत्कर्ष डोमिनियन स्टेट्स प्राप्त करना है । इसके अतिरिक्त उसने साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर गोलमेज सम्मेलन में समीक्षा किये जाने की घोषणा भी की ।
गोलमेज सम्मेलनों की भूमिकाः 1930, 1931 और 1932 में क्रमशः तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये गये, जिनका मुख्य उद्देश्य भारत में संवैधानिक विकास के मुद्दे पर विचार-विमर्श करना तथा आगे की रणनीति तय करना था । किंतु इन सम्मेलनों में कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं हो सकी ।
सविनय अवज्ञा आंदोलन तथा तत्कालीन अन्य परिस्थितियांः 1932-33 के राष्ट्रीय आंदोलन को यद्यपि सरकार दमन का सहारा लेकर दबाने में सफल तो हो गयी, किंतु उसे यह अहसास हो गया कि दमन की नीति द्वारा राष्ट्रवादी भावनाओं को ज्यादा दिन तक दबाया नहीं जा सकता। आगामी समय में किसी आंदोलन के जन्म लेने की संभावना को खत्म करने के लिये सरकार राष्ट्रीय आंदोलन को स्थायी रूप से दुर्बल करने पर विचार करने लगी। उसने कांग्रेस को विभक्त करने की योजना बनायी । इसी परिप्रेक्ष्य में उसने 1935 का भारत शासन अधिनियम प्रस्तुत किया। क्योंकि उसे उम्मीद थी कि संवैधानिक सुधारों के इस अधिनियम से कांग्रेस के एक खेमे को संतुष्ट एवं औपनिवेशिक प्रशासन में समाहित कर लिया जायेगा तथा राष्ट्रवादी आंदोलन की बची हुई शक्ति को दमन से समाप्त कर दिया जायेगा । अपनी इन्हीं नीतियों को वास्तविकता का जामा पहनाने के लिये ब्रिटिश संसद ने अगस्त 1935 में ‘गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935’ पारित किया ।
(नवंबर 1932 में तृतीय गोलमेज सम्मेलन, कांग्रेस की अनुपस्थिति में संपन्न हुआ । लेकिन विलिंगटन की अत्याचारी एवं आतंकवादी नीतियों के कारण सम्मेलन में कोई सर्वसम्मत निर्णय नहीं लिया जा सका ) ।